
जब कभी देखूं हाथ की हथेलियों को तो खाली ये नज़र आती है....
सुनी सुनी सी लकीरों पर....किस्मत सुनाती अपनी कहानी है....
पूछती है फ़साना मुझसे ही......मेरी तन्हां ज़िन्दगानी का.....
होठों से तो हँस देता हूँ....पर आँखें सच बताती है.......
कभी यूँ ही निकल पड़ता हूँ..तनहाइयों के साथ अपनी..
और साथ ही खामोशियाँ भी परछाइयों में नज़र आती है..
हर पल बेबस है....इंतज़ार में जिसके...
वो तो अब तक....अनजान ही है..
की इंतज़ार में किसी के...जान आज भी किसी की जाती हैं...
उम्मीदों से नाता तो बहुत पहले ही छुट चूका था...
धूलि धुप में देखता था जो चेहरा कभी ..........
अब तो सपने में मायूशी ही नज़र आती है....

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