दूसरों की हद्द में हम क्यूँ क़दम जमाते हैं,
उनकी आरजू कर के ख़ुद को क्यूँ गंवाते हैं. हम भी याद करते हैं, वो भी याद आते हैं,
इक यही ताल्लुक है जिसको हम निभाते हैं.
काम कुछ नहीं हमको बस है इक सुस्ती सी कोई,
काम करना हो साल बीत जाते हैं.
लो़ग उसे बताते हैं जाके हाल महफिल का,
वरना दास्ताँ अपनी हम कहाँ सुनाते हैं.
पानियों पे रखी है मौत अपनी ख्वाहिश की,
जैसे नाव काग़ज़ की पानी पर बहाते हैं.
क्या बताऊं कैसा है ये जहाँ यह अपना,
लो़ग अब जुदा रह कर बस्तियां बसाते हैं.
केटीश क्या ख़बर हम को ग़म ज़दा सा क्यूँ हैं दिल,
क्या बताएँ आँखों में अबर क्यूँ यह छाते हैं।
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